|
Post by geetamanika on Dec 24, 2013 23:14:52 GMT 5.5
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वद्भिः । तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥ ३०॥
dl.dropbox.com/u/55233059/C11/SGeeta1130.mp3
You are licking up all the worlds with Your flaming mouths, swallowing them from all sides. Your powerful radiance is burning the entire universe, and filling it with splendor, O Krishna.(11.30)
हे विष्णो! आप प्रज्वलित मुखों के द्वारा इन समस्त लोकों का ग्रसन करते हुए आस्वाद ले रहे हैं; आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत् को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है। ।।11.30।।
જીભ તમે ચાટો ગળી જલદમુખે સૌ લોક, ઉગ્ર પ્રભાથી તેજથી ભરી રહ્યા છે લોક. .. ૩૦..
---------
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । विज्ञातुमिच्छामिभवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥ ३१॥
dl.dropbox.com/u/55233059/C11/SGeeta1131.mp3
Tell me who are You in such a fierce form? My salutations to You, O best of gods, be merciful! I wish to understand You, the primal Being, because I do not know Your mission. (11.31)
(कृपया) मेरे प्रति कहिये, कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये। आदि स्वरूप आपको मैं (तत्त्व से) जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी प्रवृत्ति (अर्थात् प्रयोजन को) को मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। ।।11.31।।
ઉગ્ર રૂપના કોણ છો દેવ, કહો મુજને, મૂળ રૂપ ધારો, પડે સમજ કૈં ન મુજને.
---------
|
|