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Post by geetamanika on Dec 18, 2013 22:58:49 GMT 5.5
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः । दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ २०॥ dl.dropbox.com/u/55233059/C11/SGeeta1120.mp3The entire space between heaven and earth is pervaded by You alone in all directions. Seeing Your marvellous and terrible form, the three worlds are trembling with fear, O Lord. (11.20) हे महात्मन्! स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का यह आकाश तथा समस्त दिशाएं अकेले आप से ही व्याप्त हैं; आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक अतिव्यथा (भय) को प्राप्त हो रहे हैं। ।।11.20।। પૃથ્વી ને આકાશમાં વ્યાપક એક તમે, સર્વ દિશામાં છો રહ્યા દિવ્ય સ્વરૂપ તમે. ઉગ્ર રૂપ જોઈ થયા ભયભીત બધા લોક, પ્રવેશી રહ્યા રૂપમાં દેવજનો પણ કો'ક. .. ૨૦.. --------- अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति । स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां सुतिभिः पुष्कलाभिः ॥ २१॥ dl.dropbox.com/u/55233059/C11/SGeeta1121.mp3These hosts of demigods enter into You. Some with folded hands sing Your names and glories in fear. A multitude of Maharishis and Siddhas hail and adore You with abundant praises. (11.21) ये समस्त देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आप की स्तुति करते हैं; महर्षि और सिद्धों के समुदाय 'कल्याण होवे' (स्वस्तिवाचन करते हुए) ऐसा कहकर, उत्तम (या सम्पूर्ण) स्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं। ।।11.21।। દેવ તમોને વંદતા વંદે ઋષિ પણ તેમ, સ્તવન કરે છે સિદ્ધ સૌ, ગાન ગાય ના કેમ? ---------
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